Friday, November 15, 2019

शिक्षक संस्कारों का निर्माता होता है

सर! मुझे पहचाना?"

"कौन?"

"सर, मैं आपका स्टूडेंट। 40 साल पहले का 

"ओह! अच्छा। आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है। इसलिए नही पहचान पाया। खैर। आओ, बैठो। क्या करते हो आजकल?" उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।

"सर, मैं भी आपकी ही तरह टीचर बन गया हूँ।"

"वाह! यह तो अच्छी बात है लेकिन टीचर की तनख़ाह तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे...?"

"सर। जब मैं सातवीं क्लास में था तब हमारी कलास में एक वाक़िआ हुआ था। उस से आपने मुझे बचाया था। मैंने तभी टीचर बनने का इरादा कर लिया था। वो वाक़िआ मैं आपको याद दिलाता हूँ। आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।"

"अच्छा! क्या हुआ था तब?"

"सर, सातवीं में हमारी क्लास में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था। जबकि हम बाक़ी सब बहुत ग़रीब थे। एक दिन वोह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी। कुछ याद आया सर?"

"सातवीं कक्षा?"

"हाँ सर। उस दिन मेरा दिल उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौक़ा देखकर वह घड़ी चुरा ली थी।  
उसके बाद आपका पीरियड था। उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की। आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है उसे वापस कर दो। मैं उसे सज़ा नहीं दूँगा। लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की।"

"फिर आपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा और यह भी कहा कि आप सबकी जेब देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नहीं जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नहीं खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा।"

"हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए। आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे। जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी। मेरी चोरी पकड़ी जानी थी। अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था। मैं पछतावे से भर उठा था। उसी वक्त जान देने का इरादा कर लिया था लेकिन....लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के आख़िर तक सबकी जेब देखते रहे। और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, "अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नहीं आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे। इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे।"कहते कहते उसकी आँख भर आई।

वह रुंधे गले से बोला, "आपने मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया। आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया। आपने कभी मेरे साथ फ़र्क़ नहीं किया। उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा टीचर ही बनूँगा।"

"हाँ हाँ...मुझे याद आया।" उनकी आँखों मे चमक आ गयी। फिर चकित हो बोले, "लेकिन बेटा... मैं आजतक नहीं जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि...जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं।"

शिक्षक संस्कारों का 
निर्माता होता है।🙏🙏🙏

Wednesday, February 10, 2010

रोकना होगा साई बाबा के नाम का व्यवसायीकण

भारत धर्मभीरू देश है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दुस्तान में हर धर्म, हर भाषा, हर संप्रादाय, हर पंथ के लोगों को आजादी के साथ रहने का हक है। भारत ही इकलौता देश होगा जहां मस्जिद, मंदिर, गुरूद्वारे, चर्च सभी की चारदीवारी एक दूसरे से लगी होती है। भारत में अनेक एसे संत पुरूष हुए हैं, जिनकी जात पात के बारे में आज भी लोगों को पता नहीं है, और ये सभी धर्मों के लोगों के द्वारा निर्विकार भाव से पूजे जाते हैं।
करोडों रूपए का चढावा आने वाले मंदिरों में सबसे उपर दक्षिण भारत में तिरूपति के निकट तिरूमला की पहाडियों पर विराजे भगवान बालजी जिन्हें तिरूपति बाला जी के नाम से जाना जाता है, सबसे आगे हैं। इसके बाद नंबर आता है उत्तर भारत में जम्मू के निकट त्रिकुटा पहाडी पर विराजीं मातारानी वेष्णव देवी का। इन दोनों ही के बाद महाराष्ट्र प्रदेश के अहमदनगर जिले के शिरडी गांव के फकीर साई बाबा के धाम का नाम लिया जाता है।
शिरडी की भूमि में अचानक आए साई बाबा ने जो चमत्कार दिखाए वे पौराणिक काल के नहीं थे, आज के युग में लोगों ने बाबा को देखा है, महसूस किया है, और आज भी बाबा के प्रति लोगों की अगाध श्रृध्दा का कारण उनका चमत्कारिक व्यक्तित्व ही कहा जा सकता है। जीवन भर जिस फकीर ने अपने बजाए मानव मात्र की चिंता की है, उसके नाम को आज व्यवसायिक चोला पहनाया जाना निस्संदेह निंदनीय है।
सत्तर के दशक के बाद मनोज कुमार कृत ”शिरडी वाले साई बाबा” चलचित्र और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म ”अमर अकबर एंथोनी” में ऋषि कपूर का गाना ”शिरडी वाले साई बाबा, आया है दर पे तेरे सवाली. . .” ने धूम मचा दी। जिस तरह गुलशन कुमार के माता रानी के भजनों के बाद समूची देश त्रिकुटा पर्वत पर विराजी माता वेष्णव देवी का दीवाना हो गया था, ठीक उसी तरह बाबा के भक्तों की कतारें बढती ही गईं।
साई भक्तों की आस्था के केंद्र शिरडी का चर्चा में रहना पुराना शगल है। जब तक बाबा सशरीर थे, तब तक फर्जी नीम हकीम और ओझाओं द्वारा बाबा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर इस स्थान को चर्चाओं का केंद्र बनाया और अब तो सोने के सिंहासन और करोडों के दान के चलते यह स्थान चर्चाओं का केंद्र बिन्दु बने बिना नहीं है। अब यह बाबा के व्हीआईपी दर्शन के चलते चर्चाओं में आ गया है।
साई बाबा संस्थान द्वारा लिए गए निर्णय कि काकड आरती के लिए पांच सौ रूपए तो धूप आरती के लिए ढाई सौ रूपए वसूले जाएंगे, साई भक्तों को जम नहीं रहा है। यद्यपि यह व्यवस्था वर्तमान में प्रयोग के तौर पर ही लागू की गई है, किन्तु तीन माह में ही बाबा के भक्तों के बीच इस व्यवस्था को लेकर रोष और असंतोष गहराने लगे तो बडी बात नहीं। किसी भी अराध्य के दर्शन के लिए अगर उसके अनुयायी को कीमत चुकानी पडे तो यह उसकी आस्था पर सीधा कुठाराघात ही कहा जाएगा।
हो सकता है कि बाहर से आने वाले लोगों की परेशानी को ध्यान में रख संस्थान ने यह व्यवस्था बनाना मुनासिब समझा होगा, किन्तु उत्तर भारत में माता रानी वेष्णव देवी के दर्शन के लिए आरंभ की गई हेलीकाप्टर सेवा का लाभ आम श्रृध्दालु उठाने की कतई नहीं सोचता है। वैसे भी माना जाता है कि अपने अराध्य के दर्शन जितने कष्ट के बाद होते हैं उतना ही पुण्य प्रताप भक्त को मिलता है।
शुल्क के बदले अराध्य के दर्शन की व्यवस्था माता वेष्णो देवी श्राईन बोर्ड ने आरंभ की थी, जिसमें दो सौ रूपए से एक हजार रूपए तक का मूल्य चुकाने पर विशेष दर्शन की व्यवस्था की गई थी। बाद में भक्तों के भारी विरोध के बाद इस व्यवस्था को श्राईन बोर्ड ने बंद कर दिया था। देश की राजधानी दिल्ली में साकेत में विशाल साई प्रज्ञा धाम चलाने वाले स्वामी प्रज्ञानंद का कहना एकदम तर्कसंगत है कि शिरडी के संत साई बाबा गरीबों के मसीहा थे और उनके दर्शन के लिए धन के आधार पर भेदभाव किसी भी सूरत में तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता है।
शिरडी के साई बाबा पर देश के करोडों लोगों की अगाध श्रृध्दा है। बाबा किस जात के थे, यह बात आज भी रहस्य ही है। बाबा जहां बैठते थे, उस स्थान को द्वारका मस्जिद कहा जाता है। सभी धर्मों के लोगों द्वारा साई बाबा के प्रति आदर का भाव है। यही कारण है कि साई बाबा संस्थान शिरडी के कोष में दिन दूगनी रात चौगनी बढोत्तरी होती जा रही है। कोई बाबा को सोने का सिंहासन तो कोई रत्न जडित मुकुट चढाने की बात करता है।
बाबा को समाधि लिए अभी सौ साल भी नहीं बीते हैं और विडम्बना ही कही जाएगी कि बाबा की इस प्रसिध्दि को भुनाने में धर्म के ठेकेदारों ने कोई कोर कसर नहीं रख छोडी है। आज देश भर में बाबा के नाम पर छोटे बडे अस्सी हजार से अधिक मंदिर अस्त्त्वि में आ चुके हैं। इनसे होने वाली आय किस मद में खर्च की जा रही है, इसका भी कोई लेखा जोखा नहीं है। साई के नाम पर लोगों को ठगने वालों की तादाद आज देश में तेजी से बढी है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
शिरडी का वह फकीर जो माया मोह से दूर था के समाधि लेने के बाद उनके मंदिर या समाधि स्थल को भव्य बनाना उनके भक्तों की भावनाएं प्रदर्शित करता है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। इसके साथ ही साथ बाबा के भक्तों को यह भी सोचना चाहिए कि साई बाबा ने सदा ही मानवमात्र के कल्याण की बात सोची थी। बाबा के प्रति सही भक्ति अगर प्रदर्शित करना है तो संस्थान और उनके दानदाता भक्तों को चाहिए कि शिरडी में सोने के सिंहासन या रत्न जडित मुकुट आदि के बजाए एक भव्य सर्वसुविधायुक्त अस्पताल अवश्य बनवा दें जिसमें हर साध्य और असाध्य रोगों का इलाज एकदम निशुल्क हो, इससे बाबा की कीर्ति में चार चांद लग सकते हैं।

Saturday, January 30, 2010

Take a stand against evil, corruption & terrorism 4 we belong to India!!Jai Hind

Take a stand against evil, corruption & terrorism 4 we belong to India!!Jai Hind

Tuesday, January 26, 2010

कहां ले जा रहा है इलेक्ट्रानिक मीडिया समाज को!

दोपहर, देर रात और सुबह सवेरे अगर आपने अपना बुद्धू बॉक्स खोलें तो आपको स्वयंभू भविष्यवक्ता अंक ज्योतिषी और ना ना प्रकार के रत्न, गंडे, तावीज बेचने वाले विज्ञापनों की दुकानें साफ दिख जाएंगी। यह सच है कि हर कोई अनिष्ट से घबराता है। मानव स्वभाव है कि वह किसी अनहोनी के न घटने के लिए हर जतन करने को तत्पर रहता है। इसी का फायदा अंधविश्वास का व्यापार करने वाले बडे ही करीने से उठाते हैं। विडम्बना यह है कि इस अंधविश्वास की मार्केटिंग में ”न्यूज चैनल्स” द्वारा अपने आदर्शों पर लालच को भारी पडने दिया जा रहा है।

धार्मिक आस्था और मान्यताओं को कोई भी चेलेंज करने की स्थिति में नहीं है। आदि अनादि काल से चली आ रही मान्यताओं को मानना या ना मानना निश्चित तौर पर किसी का नितांत निजी मामला हो सकता है। इन्हें थोपा नहीं जा सकता है। हर काल में नराधम अधर्मियों द्वारा इन मान्यताओं को तोड मरोडकर अपना हित साधा है। आज के युग में भी लोगों के मन में ”डर” पैदा कर इस अंधविश्वास के बाजार के लिए उपजाउ माहौल तैयार किया जा रहा है।

जिस तरह से बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में स्वयंभू योग, आध्यात्म गुरू और प्रवचनकर्ताओं ने इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने बाहुपाश में लिया है, वह चमत्कार से कम नहीं है। समाचार चैनल्स यह भूल गए हैं कि उनका दायित्व समाज को सही दिशा दिखाना है ना कि किसी तरह के अंधविश्वास को बढावा देना।

चैनल्स पर इन स्वयंभू गुरूओं द्वारा अपने शिविरों में गंभीर बीमारी से ठीक हुए मरीजों के साथ सवाल जवाब का जिस तरह का प्रायोजित कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, उसे देखकर लगता है कि मीडिया के एक प्रभाग की आत्मा मर चुकी है। अस्सी के दशक तक प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया का पदार्पण हुआ, जिसे लोगों ने अपनी आंखों का तारा बना लिया।

अपनी इस सफलता से यह मीडिया इस कदर अभिमान में डूबा कि इसे अच्छे बुरे का भान ही नहीं रहा। अपनी सफलता के मद में चूर मीडिया के इस प्रभाग ने जो मन में आया दिखाना आरंभ कर दिया। कभी सनसनी फैलाने के लिए कोई शिगूफा छोडा तो कभी कोई। रही सही कसर अंधविश्वास की मार्केटिंग कर पूरी कर दी। आज कमोबेश हर चेनल पर आम आदमी को भयाक्रांत कर उन्हें अंधविश्वासी बना किसी न किसी सुरक्षा कवच जैसे प्रोडेक्ट बेचने का मंच बन चुके हैं आज के समय में न्यूज चेनल्स।

कभी संभावित दुर्घटना, तो कभी रोजी रोजगार में व्यवधान, कभी पति पत्नि में अनबन जैसे आम साधारण विषय ही चुने जाते हैं लोगों को डराने के लिए। यह सच्चाई है कि हर किसी के दिनचर्या में छोटी-मोटी दुर्घटना, किसी से अनबन, रोजगार में उतार चढाव सब कुछ होना सामान्य बात है। इसी सामान्य बात को वृहद तौर पर दर्शाकर लोगों के मन में पहले डर पैदा किया जाता है, फिर इसके बाद किसी को फायदा होने की बात दर्शाकर उस पर सील लगाकर अपना उत्पाद बेचा जाता है।

जिस तरह शहरों में पहले दो तीन लोग घरों घर जाकर यह पूछते हैं कि कोई बर्र का छत्ता तोडने वाले तो नहीं आए थे, ठीक उसी तर्ज पर इन अंधविश्वास फैलाने वालों द्वारा ताना बाना रचा जाता है। इसके कुछ ही देर बाद एक बाल्टी में कुछ मरी बर्र के साथ शहद लेकर दो अन्य आदमी प्रकट होते हैं और शुद्ध शहद के नाम पर अच्छे दाम वसूल रफत डाल देते हैं। एक दिन बाद जब उस शहद को देखा जाता है तो पाते हैं कि वह गुड के सीरा के अलावा कुछ नहीं है।

इतना ही नहीं इस सबसे उलट अब तो टीवी के माध्यम से अपने पूर्व जनम में भी तांकझांक कर लेते हैं। आप पिछले जन्म में क्या थे, आज आपकी उमर 20 साल है, पिछले जन्म में 1800 के आसपास के नजारे का नाटय रूपांतरण देखने को मिलता है। अरे आपकी आत्मा ने जब आपका शरीर त्यागा तब से अब तक आपकी आत्मा कहां थी। यह रियलिटी शो बाकायदा चल रहा है, और चेनल की टीआरपी (टेलिवीजन रेटिंग प्वाईंट) में तेजी से उछाल दर्ज किया गया।

इस शो में पूर्वजनम आधारित चिकित्सा, ”पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरिपी का इस्तेमाल किया जाना बताया जाता है। इस थेरिपी का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है और न ही यह प्रासंगिक भी कही जा सकती है, और न ही चिकित्सा विज्ञान में इसे चिकित्सा पद्यति के तौर पर मान्यता मिली है।

जानकारों का कहना है कि आज जब हिन्दुस्तान साईंस और तकनालाजी के तौर पर वैज्ञानिक आधार पर विकास के नए आयाम गढने की तैयारी में है, तब इस तरह के शो के माध्यम से महज सनसनी, उत्सुक्ता, कौतुहल आदि के लिए अंधविश्वास फैलाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। इस तरह के प्रोग्राम का प्रसारण नैतिकता के आधार पर गलत, गैरजिम्मेदाराना और खतरनाक ही है।

यह बात भी उसी तरह सच है जितना कि दिन और रात, कि पूर्व जन्म को लेकर हिन्दुस्तान में तरह तरह की मान्यताएं, भांतियां और अंधविश्वास अस्तित्व में हैं। इक्कीसवीं सदी में अगर हम पंद्रहवीं सदी की रूढीवादी मान्यताओं का पोषण करेंगे तब तो हो चुकी भारत की तरक्की। इस तरह के कार्यक्रम लोगों को अंधविश्वास से दूर ले जाने के स्थान पर अंधविश्वास के चंगुल में फंसाकर और अधिक अंधविश्वासी बनाने के रास्ते ही प्रशस्त करते हैं।

एसा नहीं कि मीडिया के कल्पवृक्ष के जन्मदाता प्रिंट मीडिया में अंधविश्वासों को बढावा न दिया जा रहा हो। प्रिंट मीडिया में ”सेक्स” को लेकर तरह तरह के विज्ञापनों से पाठकों को भ्रमित किया जाता है। तथाकथित विशेषज्ञों से यौन रोग से संबंधित भ्रांतियों के बारे में तरह तरह के गढे हुए सवाल जवाब भी रोचक हुआ करते हैं। सालों पहले सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में सवाल जवाब हुआ करते थे, किन्तु उसमें इसका समाधान ही हुआ करता था, उसमें किसी ब्रांड विशेष के इस्तेमाल पर जोर नहीं दिया जाता था।

आज तो प्रिंट मीडिया में इस तरह के विज्ञापनों की भरमार होती है, जिनमें वक्ष को सुडोल बनाने, लिंगवर्धक यंत्र, के साथ ही साथ योन समस्याओं के फटाफट समाधान का दावा किया जाता है। प्रिंट में अब तो देसी व्याग्रा, जापानी तेल, मर्दानगी को दुबारा पैदा करने वाले खानदानी शफाखानों के विज्ञापनों की भरमार हो गई है। ”गुप्तज्ञान” से लेकर ”कामसूत्र” तक के राज दो मिनिट में आपके सामने होते हैं। मजे की बात तो यह है कि देह व्यापार का अड्डा बन चुके ”मसाज सेंटर्स” के विज्ञापन जिसमें देशी विदेशी बालाओं से मसाज के लुभावने आकर्षण होते हैं को छापने से भी गुरेज नहीं है प्रिंट मीडिया को।

सवाल यह उठता है कि मीडिया अब किस स्वरूप को अंगीकार कर रहा है। अगर मीडिया की यह दुर्गत हो रही है तो इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कार्पोरेट मानसिकता के मीडिया की ही जवाबदेही मानी जाएगी। ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में आज मीडिया किसी भी स्तर पर उतरकर अपने दर्शक और पाठकों को भ्रमित करने से नहीं चूक रहा है। इसे अच्छी शुरूआत कतई नहीं माना जाना चाहिए। मीडिया के सच्चे हितैषियों को इसका प्रतिकार करना आवश्यक है अन्यथा मीडिया की आवाज कहां खो जाएगी कहा नहीं जा सकता है।

Monday, January 25, 2010

फोलो मी

दोस्तों मुझे जरुरत हे नए दोस्तों की जो मुझे होसला दे ताकि में लिख सकू फोलो करो मुझे और बनो मेरे नए दोस्त
में वादा करता हु आप से मेरे लेख आप को पसंद आयगे आशा करता हु मुझे होसला देंगे
इमरान हैदर

Thursday, January 14, 2010

थुरूर कांग्रेस की तो टि्वटर थुरूर की कमजोरी

भारत के विदेश राज्यमंत्री शशि थुरूर और विवादों का न टूटने वाला नाता गहराता जा रहा है। थुरूर एक के बाद एक हमले कर कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को मुश्किलों में डालने से नहीं चूक रहे हैं। कभी वे हवाई जहाज की इकानामी क्लास को मवेशी का बाडा तो कभी काम के बोझ तले दबे होने की पीडा उजागर करते हैं। अपने ही विभाग के कबीना मंत्री के फैसले के खिलाफ भी वे खुलकर सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी से बाज नहीं आ रहे हैं। थुरूर की इन नादानियों को कमतर आंककर कांग्रेस नेतृत्व हल्की फुल्की झिडकी लगाकर ही संतोष कर लेती है। मोटी चमडी वाले थुरूर पर इन छोटी मोटी डांट का असर होता नहीं दिख रहा है।

हाल ही में एसोसिएशन ऑफ इंडियन डिप्लोमेट और इंडियन कांउसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स के एक कार्यक्रम में शिरकत के दौरान विदेश राज्य मंत्री शशि थुरूर ने भारत पर डेढ सौ से अधिक साल तक राज करने वाले ब्रिटेन के लेबर एमपी बी.पारेख के द्वारा देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी की विदेश नीति की आलोचना का न केवल समर्थन किया है, वरन् इसमें अपनी और से कशीदे भी गढे हैं।

बकौल थुरूर, सभ्यता की विरासत की अभिव्यक्ति में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने असाधारण योगदान दिया है, साथ ही दोनों ने दुनिया में भारत का स्थान बनाया है, लेकिन विदेश नीति के संचालन के लिए हमें यह नकारात्मक छवि भी दी है कि यह नीति अन्य लोगों के व्यवहार पर नैतिकता भरी टिप्पणी पर ही संचालित होती है। वैसे कांग्रेस ने इसे नेहरू की विदेश नीति की आलोचना के तौर पर लिया है।

थुरूर चूंकि भारत गणराज्य के विदेश राज्य मंत्री जैसे जिम्मेदार ओहदे पर हैं, इस लिहाज से उनके द्वारा कही गई बात भारत सरकार की बात ही मानी जाएगी। वैसे भी शशि थुरूर भारत के राजनयिक रहे हैं, और उनकी जिन्दगी का बहुत बडा हिस्सा उन्होंने भारत के बाहर ही गुजारा है। थुरूर अगर नेहरू और इंदिरा गांधी की विदेश नीति की आलोचना कर रहे हैं तो इस बात में दम अवश्य होगा। अब भारत सरकार या सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस को नैतिकता के आधार पर यह स्पष्ट करना ही होगा कि नेहरू और इंदिरा गांधी की विदेश नीति सही थी या उसमें थुरूर ने जो गल्तियां निकालीं हैं वे सही हैं। इस मामले में कांग्रेस या भारत सरकार मौन रहती है तो यह दोनों ही की मौन स्वीकृति के तौर पर लिया जा सकता है।

इतना सब होने पर विपक्ष चुप्पी साधे बैठा है। दरअसल विपक्ष भी नहीं चाहता है कि थुरूर को मंत्री पद से हटाया जाए। एक अकेला विदेश राज्य मंत्री ही विपक्ष की भूमिका का निर्वहन जो कर रहा है। अपनी ही सरकार की नीतियों पर तल्ख टिप्पणियां भले ही थुरूर को सुर्खियों में रखे हुए हो पर इससे नुकसान में तो कांग्रेस ही आ रही है।

गौरतलब है कि पूर्व में थुरूर ने कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के दिल्ली से मुंबई तक के इकानामी क्लास के हवाई सफर के तत्काल बाद इकानामी क्लास को केटल क्लास अर्थात मवेशी का बाडा की संज्ञा दे दी थी। सोशल नेटवर्किंग वेव साईट टि्वटर का मोह बडबोले शशि थुरूर आज तक नहीं छोड पाए हैं। विदेश मंत्री एम.एस.कृष्णा के वीजा नियमों को कडा करने के फैसले के उपरांत थुरूर ने उस पर भी टिप्पणी कर दी थी।

एक के बाद एक गल्ति करने के बाद भी थुरूर का भारत सरकार के जिम्मेदार मंत्री पद पर बने रहना सभी को आश्चर्यचकित किए हुए है। जिस तरह महाभारत काल में शिशुपाल के सौ अपराधों को एक के बाद एक कृष्ण ने क्षमा किए थे, लगता है उसी तर्ज पर कांग्रेस की राजमाता श्रीमती सोनिया गांधी थुरूर के बडबोलेपन को नजर अंदाज करती जा रहीं हैं। वैसे भी राजनयिक से जनसेवक बने शशि थुरूर कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी की पसंद हैं। संभवत: यही कारण है कि कांग्रेस को एक के बाद एक नुकसान पहुंचाने वाले शशि थुरूर पर लगाम कसने से पुत्रमोह में अंधी कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी भी कठोर कदम उठाने से हिचक ही रहीं हैं।

हालात देखकर लगने लगा है कि बडबोले विदेश राज्यमंत्री शशि थुरूर के लिए सरकारी कामकाज से ज्यादा टि्वटर पर अपने लाखों प्रशंसकों के सवालों का जवाब देना और उल जलूल बातें बोलकर मीडिया की सुर्खियों में बने रहना ज्यादा अहम हो गया है। शशि थुरूर की इन हरकतों के बाद भी अगर कांग्रेस उन्हें मंत्री के तौर पर झेल रही है तो यह साबित होता है कि थुरूर कांग्रेस की मजबूरी बन गए हैं, कारण चाहे जो भी हो। इसके अलावा दूसरी बात यह साफ तौर पर उभरकर सामने आ रही है कि थुरूर के लिए अनर्गल बयान बाजी और टि्वटर प्रेम एक अच्छा शगल बनकर रह गया है।

हमारी नजर में थुरूर के इस तरह के कदमों का कांग्रेस के पास कोई ईलाज नहीं है। अब दो ही रास्ते बचते हैं, अव्वल तो यह कि कांग्रेसनीत केंद्र सरकार टि्वटर नाम की सोशल नेटवर्किंग वेव साईट को ही खरीद ले और उसे नेशनल इंफरमेंशन सेंटर (एनआईसी) के हवाले कर दे, ताकि सरकारी नोटशीट और लिखापढी भी अब इसके माध्यम से संचालित हों, ताकि कांग्रेस के लाडले थुरूर का टि्वटर से मन भी बहलता रहेगा और कांग्रेस भी बदनामी से बच जाएगी। दूसरे यह कि भारत में इस वेव साईट को ही प्रतिबंधित कर दिया जाए। इससे थुरूर की मन की बातें भारत छोडकर शेष दुनिया में तो पढा जा सकेगा पर भारत में मीडिया में थुरूर के बडबोलेपन को स्थान नहीं मिल सकेगा। इस तरह थुरूर का टि्वटर प्रेम भी जिंदा रहेगा और कांग्रेस की लाज भी बच जाएगी।

Tuesday, January 12, 2010

कांग्रेस शासन में महंगाई ने तोडी कमर

कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को जनता ने जिस विश्वास के साथ सत्ता पर बैठने का अधिकार सौंपा वस्तुत: सरकार की नीतियों से नहीं लग रहा है कि वह जनता के प्रति गंभीर है। सरकार द्वारा जारी आकडों में भारत वैश्विक स्तर पर तेजी से उभर रहा है। देश में हर सेक्टर में दिन दूनी रात चौगनी तरक्की दर्शायी जा रही है। भारत की चालू वित्त वर्ष में आर्थिक विकास दर 7.8 से लेकर 8 प्रतिशत है। एशियन विकास बैंक (एडीबी) का भी यही मानना है कि भारत की विकास दर 7 प्रतिशत से कम नहीं होगी, लेकिन तरक्की के यह आंकडे तब बेमानी लगते हैं जब जमीन पर महगाँई की मार झेलता आम आदमी अपनी इच्छा से भरपेट भोजन की थाली भी नहीं खरीद सकता।

संप्रग सरकार के राज्य में खाद्य पदार्थों ने सभी रिकार्ड तोड दिए हैं। बढी हुई महंगाई ने जैसे मध्यम वर्ग के मासिक बजट की रही-सही कसर पूरी कर दी है। सब्जी और अनाज के दाम सातवें आसमान पर पहुँच गए हैं। खाद्यान में 20 प्रतिशत वृद्धि हो चुकी है। बच्चों की पढाई भी महंगाई की मार से नहीं बची। साधारण कॉपी की कीमतों में 35 प्रतिशत तक इजाफा हुआ है, किन्तु केंद्र सरकार है कि अपने जादुई ऑंकडे दिखाने में लगी हुई है। माइनस पर मौजूद महँगाई तथा बढती जीडीपी ग्रोथ दिखाकर वह अपनी पीठ थपथपा रही है। सरकार मान रही है कि बढी हुई कीमतें वैश्विक घटना है, लेकिन सच यह है कि आज देश में खाद्य वस्तुओं और आवश्यक उत्पादों की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। बिचौलिए, दलाल, सट्टेबाज और बडे व्यापारी जमाखोरी कर दाम बढा देते हैं। केन्द्र सरकार फिर उन्हें कम कराने की मशक्कत करती दिखाई देती है। इसकी अपेक्षा होना यह चाहिए था कि सरकार का खाद्य वस्तुओं के व्यापार मे लगे वर्ग पर पहले से भय और नियंत्रण होता ताकि कोई व्यापारी अधिक लाभ के लालच में देश की जनता को लूटने से पहले दण्ड के भय से बेइमानी ही नहीं करता।

अर्थशास्त्री महँगाई के लिए माँग और आपूर्ति के अंतर को दोषी मानते हैं, किन्तु यह भारत में बढ रही मंहगाई के पीछे का सच कदापि नहीं है। सिर्फ दालों की यथास्थिति देखें तो वर्ष 2008 में भारत में 147.6 टन तथा 2009 में 146.6 लाख टन दालों का उत्पादन हुआ था। 08 की तुलना में 09 बीते एक वर्ष में 1लाख टन की गिरावट आई। भारतीय अर्थशास्त्रियों के अनुसार देश में 170 लाख टन दाल की वार्षिक मांग है । यदि इस बात को मान भी लिया जाए कि हमारे अर्थशास्त्री सही कह रहे हैं तब जो शासकीय आंकडे हैं कि एक वर्ष में केन्द्र सरकार ने 25 लाख टन दाल का आयात किया इसे किस रुप में देखा जाए? क्योकि इस तरह बाजार में 171.6 लाख टन दाल उपलब्ध होनी चाहिए थी। जब माँग से ज्यादा आपूर्ति की गई है फिर गत एक वर्ष के अंदर कीमतों में दुगने का अंतर कैसे आ गया? निश्चित ही यह जमाखोरी और कालाबाजारी का परिणाम है। इसी तरह अन्य रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं में बढोत्तरी जारी है।

आज स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि पिछले 12 वर्षों का रिकार्ड इस महँगाई ने तोड दिया है। महँगाई की दर 19.83 पर पहुँच गई है। सब्जियों में जिस तेजी से बढोत्तरी हुई है उसने तो भारतीय मध्यमवर्गीय रसोई का जायका ही बिगाड कर रख दिया। इस मध्यमवर्ग और मजदूर वर्ग की हालत यह हो गई है कि दिन प्रतिनिधि बढती महँगाई के कारण आवश्यक वस्तुएँ खरीदने में उन्हें पसीना आ रहा है। आलू के दामों में 132.74 प्रतिशत, प्याज 40.75, अन्य सब्जियों में 46.70 प्रतिशत तथा दालें 41.69 प्रतिशत महँगी हुई हैं। इसी अनुपात में फलों में तेजी आई है। चीनी 60 रुपये किलो और दूध की कीमत 22 रूपए लीटर से बढकर 30 रूपए पहुँच गई है। खाद्यान में बाजरा 12, गेहूँ 9.4 और चावल 2 प्रतिशत महँगे हुए हैं। थोक मूल्य पर आधारित अन्य गैर खाद्य वस्तुओं में भी 8.74 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इसके बावजूद भी सरकार का महंगाई के प्रति लचीला रुख समझ के परे है। केन्द्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के इस रुख से यही प्रदर्शित हो रहा है कि वह महँगाई के प्रति गंभीर नहीं ।

यही कारण है कि उसके इस गैर जिम्मेदारी भरे कदम को लेकर पिछले संसद सत्र में वित्त मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति ने भी सरकार की कार्यप्रणाली पर उंगली उठाई थी। समिति ने अपनी रपट मे कहा कि सरकार द्वारा इसे रोकने के लिए जो महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए थे वह उसने अभी तक नहीं उठाए हैं। वित्त मंत्रालय महँगाई पर अंकुश लगाने में पूरी तरह विफल रहा है।

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि महँगाई यूपीए सरकार के नियंत्रण से बिल्कुल बाहर हो गई है। केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कृषि मंत्री के बार-बार आने वाले वक्तव्यों जिनमें वह इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि सूखा तथा बढती महँगाई से निपटने के लिए सरकार के पास पर्याप्त अनाज हैबल्कि आयात के लिए जरूरी विदेशी मुद्रा का भण्डार भी मौजूद हैं से अब काम नहीं चलने वाला न यह बताने से की किसानों ने पिछले साल 23 करोड 40 लाख टन खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन किया था।

सरकार जिस तरह से आम जनता को भरोसा दिला रही है उससे देश में तेजी से बढती महँगाई को नहीं रोका जा सकता है। केन्द्र सरकार जिन थोक मूल्य सूचकांक की आड में महँगाई से बचने तथा मुँह चुराने का प्रयास कर रही है वह थोक मूल्य सूचकांक की पध्दाति केवल भारत में अपनाई गई है जिससे उपभोक्ता को सरकारों द्वारा भ्रम में रखा जा सके। यूरोप में होल-सेल के स्थान पर रिटेल दर के अनुसार महँगाई का अनुमान लगाया जाता है। भारत में यह पद्धति इसलिये भी अपनाई गई है कि यदि महँगाई छपे मूल्य के अनुसार बतायी जायेगी तो जनता कहीं महँगाई के भय से सरकार के विरोध में आन्दोलन न कर बैठेऔर लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में इस आन्दोलन के परिणाम से सरकार न चली जाये। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय का सांख्यिकी विभाग जो आंकडे हमारे सामने रखता है प्राय: वह इसी प्रकार के होते हैं।

आज भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की चौथे नंबर की अर्थव्यवस्था है, किन्तु प्रतिव्यक्ति आय में यह 133वें पायदान पर है। यानि आय प्राप्ति की दृष्टि से 132 देश भारत की अपेक्षा बेहतर स्थिति में हैं। समय रहते महँगाई पर ब्रेक नहीं लगाया गया तो कांग्रेसनीत संप्रग सरकर को यह बात समझ लेना चाहिए कि आने वाले दिनों में स्थिति बहुत भयंकर हो जायेगी।