धार्मिक आस्था और मान्यताओं को कोई भी चेलेंज करने की स्थिति में नहीं है। आदि अनादि काल से चली आ रही मान्यताओं को मानना या ना मानना निश्चित तौर पर किसी का नितांत निजी मामला हो सकता है। इन्हें थोपा नहीं जा सकता है। हर काल में नराधम अधर्मियों द्वारा इन मान्यताओं को तोड मरोडकर अपना हित साधा है। आज के युग में भी लोगों के मन में ”डर” पैदा कर इस अंधविश्वास के बाजार के लिए उपजाउ माहौल तैयार किया जा रहा है।
जिस तरह से बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में स्वयंभू योग, आध्यात्म गुरू और प्रवचनकर्ताओं ने इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने बाहुपाश में लिया है, वह चमत्कार से कम नहीं है। समाचार चैनल्स यह भूल गए हैं कि उनका दायित्व समाज को सही दिशा दिखाना है ना कि किसी तरह के अंधविश्वास को बढावा देना।
चैनल्स पर इन स्वयंभू गुरूओं द्वारा अपने शिविरों में गंभीर बीमारी से ठीक हुए मरीजों के साथ सवाल जवाब का जिस तरह का प्रायोजित कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, उसे देखकर लगता है कि मीडिया के एक प्रभाग की आत्मा मर चुकी है। अस्सी के दशक तक प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया का पदार्पण हुआ, जिसे लोगों ने अपनी आंखों का तारा बना लिया।
अपनी इस सफलता से यह मीडिया इस कदर अभिमान में डूबा कि इसे अच्छे बुरे का भान ही नहीं रहा। अपनी सफलता के मद में चूर मीडिया के इस प्रभाग ने जो मन में आया दिखाना आरंभ कर दिया। कभी सनसनी फैलाने के लिए कोई शिगूफा छोडा तो कभी कोई। रही सही कसर अंधविश्वास की मार्केटिंग कर पूरी कर दी। आज कमोबेश हर चेनल पर आम आदमी को भयाक्रांत कर उन्हें अंधविश्वासी बना किसी न किसी सुरक्षा कवच जैसे प्रोडेक्ट बेचने का मंच बन चुके हैं आज के समय में न्यूज चेनल्स।
कभी संभावित दुर्घटना, तो कभी रोजी रोजगार में व्यवधान, कभी पति पत्नि में अनबन जैसे आम साधारण विषय ही चुने जाते हैं लोगों को डराने के लिए। यह सच्चाई है कि हर किसी के दिनचर्या में छोटी-मोटी दुर्घटना, किसी से अनबन, रोजगार में उतार चढाव सब कुछ होना सामान्य बात है। इसी सामान्य बात को वृहद तौर पर दर्शाकर लोगों के मन में पहले डर पैदा किया जाता है, फिर इसके बाद किसी को फायदा होने की बात दर्शाकर उस पर सील लगाकर अपना उत्पाद बेचा जाता है।
जिस तरह शहरों में पहले दो तीन लोग घरों घर जाकर यह पूछते हैं कि कोई बर्र का छत्ता तोडने वाले तो नहीं आए थे, ठीक उसी तर्ज पर इन अंधविश्वास फैलाने वालों द्वारा ताना बाना रचा जाता है। इसके कुछ ही देर बाद एक बाल्टी में कुछ मरी बर्र के साथ शहद लेकर दो अन्य आदमी प्रकट होते हैं और शुद्ध शहद के नाम पर अच्छे दाम वसूल रफत डाल देते हैं। एक दिन बाद जब उस शहद को देखा जाता है तो पाते हैं कि वह गुड के सीरा के अलावा कुछ नहीं है।
इतना ही नहीं इस सबसे उलट अब तो टीवी के माध्यम से अपने पूर्व जनम में भी तांकझांक कर लेते हैं। आप पिछले जन्म में क्या थे, आज आपकी उमर 20 साल है, पिछले जन्म में 1800 के आसपास के नजारे का नाटय रूपांतरण देखने को मिलता है। अरे आपकी आत्मा ने जब आपका शरीर त्यागा तब से अब तक आपकी आत्मा कहां थी। यह रियलिटी शो बाकायदा चल रहा है, और चेनल की टीआरपी (टेलिवीजन रेटिंग प्वाईंट) में तेजी से उछाल दर्ज किया गया।
इस शो में पूर्वजनम आधारित चिकित्सा, ”पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरिपी का इस्तेमाल किया जाना बताया जाता है। इस थेरिपी का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है और न ही यह प्रासंगिक भी कही जा सकती है, और न ही चिकित्सा विज्ञान में इसे चिकित्सा पद्यति के तौर पर मान्यता मिली है।
जानकारों का कहना है कि आज जब हिन्दुस्तान साईंस और तकनालाजी के तौर पर वैज्ञानिक आधार पर विकास के नए आयाम गढने की तैयारी में है, तब इस तरह के शो के माध्यम से महज सनसनी, उत्सुक्ता, कौतुहल आदि के लिए अंधविश्वास फैलाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। इस तरह के प्रोग्राम का प्रसारण नैतिकता के आधार पर गलत, गैरजिम्मेदाराना और खतरनाक ही है।
यह बात भी उसी तरह सच है जितना कि दिन और रात, कि पूर्व जन्म को लेकर हिन्दुस्तान में तरह तरह की मान्यताएं, भांतियां और अंधविश्वास अस्तित्व में हैं। इक्कीसवीं सदी में अगर हम पंद्रहवीं सदी की रूढीवादी मान्यताओं का पोषण करेंगे तब तो हो चुकी भारत की तरक्की। इस तरह के कार्यक्रम लोगों को अंधविश्वास से दूर ले जाने के स्थान पर अंधविश्वास के चंगुल में फंसाकर और अधिक अंधविश्वासी बनाने के रास्ते ही प्रशस्त करते हैं।
एसा नहीं कि मीडिया के कल्पवृक्ष के जन्मदाता प्रिंट मीडिया में अंधविश्वासों को बढावा न दिया जा रहा हो। प्रिंट मीडिया में ”सेक्स” को लेकर तरह तरह के विज्ञापनों से पाठकों को भ्रमित किया जाता है। तथाकथित विशेषज्ञों से यौन रोग से संबंधित भ्रांतियों के बारे में तरह तरह के गढे हुए सवाल जवाब भी रोचक हुआ करते हैं। सालों पहले सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में सवाल जवाब हुआ करते थे, किन्तु उसमें इसका समाधान ही हुआ करता था, उसमें किसी ब्रांड विशेष के इस्तेमाल पर जोर नहीं दिया जाता था।
आज तो प्रिंट मीडिया में इस तरह के विज्ञापनों की भरमार होती है, जिनमें वक्ष को सुडोल बनाने, लिंगवर्धक यंत्र, के साथ ही साथ योन समस्याओं के फटाफट समाधान का दावा किया जाता है। प्रिंट में अब तो देसी व्याग्रा, जापानी तेल, मर्दानगी को दुबारा पैदा करने वाले खानदानी शफाखानों के विज्ञापनों की भरमार हो गई है। ”गुप्तज्ञान” से लेकर ”कामसूत्र” तक के राज दो मिनिट में आपके सामने होते हैं। मजे की बात तो यह है कि देह व्यापार का अड्डा बन चुके ”मसाज सेंटर्स” के विज्ञापन जिसमें देशी विदेशी बालाओं से मसाज के लुभावने आकर्षण होते हैं को छापने से भी गुरेज नहीं है प्रिंट मीडिया को।
सवाल यह उठता है कि मीडिया अब किस स्वरूप को अंगीकार कर रहा है। अगर मीडिया की यह दुर्गत हो रही है तो इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कार्पोरेट मानसिकता के मीडिया की ही जवाबदेही मानी जाएगी। ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में आज मीडिया किसी भी स्तर पर उतरकर अपने दर्शक और पाठकों को भ्रमित करने से नहीं चूक रहा है। इसे अच्छी शुरूआत कतई नहीं माना जाना चाहिए। मीडिया के सच्चे हितैषियों को इसका प्रतिकार करना आवश्यक है अन्यथा मीडिया की आवाज कहां खो जाएगी कहा नहीं जा सकता है।
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